Wednesday, 10 January 2024

Jay Ram Rama Ramanam Shamanam


जय राम रमारमनं समनं  

यह स्तुति भगवान शिव द्वारा प्रभु राम के अयोध्या वापस आने के उपलक्ष्य में गाई गई है। जिसके अंतर्गत सभी ऋषिगण, गुरु, कुटुम्बी एवं अयोध्या वासी कैसे अधीर हो कर अपने प्रभु रूप राजा राम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तथा श्री राम के आगमन पर कैसे सभी आनन्दित हैं, श्रीराम अपने महल को चलते है, आकाश से फूलों की वृष्टि हो रही है। सब का वर्णन है इस स्तुति में...

छन्द:

जय राम रमारमणं समनं |
भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||
अवधेस सुरेस रमेस विभो |
सरनागत मागत पाहि प्रभो ||१||

दस सीस बिनासन बीस भुजा |
कृत दूरी महा माहि भूरी रुजा |
रजनीचर बृंद पतंग रहे |
सर पावक तेज प्रचंड दहे ||२||

महि मंडल मंडन चारूतरं |
धृत सायक चाप निषंग बरं |
मद मोह महा ममता रजनी |
तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||३||

मनजात किरात निपात किए |
मृग लोग कुभोग सरेन हिए |
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे |
विषया बन पाँवर भूली परे ||४||

बाहु रोग बियोगन्हि लोग हए |
भवदंध्री निरादर के फल ए |
भव सिंधु अगाध परे नर ते |
पद पंकज प्रेम न जे करते ||५||

अति दीन मलीन दुखी नितहीँ |
जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं |
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें |
प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||६||

नहीं राग न लोभ न मान मदा |
तिन्ह कें सम वैभव वा विपदा |
एहि ते तव सेवक होत मुदा |
मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||७||

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ |
पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ |
सम मानी निरादर आदरही |
सब संत सुखी बिचरंति महि ||८||

मुनि मानस पंकज भृंग भजे |
रघुवीर महा रनधीर अजे |
तव नाम जपामि नमामि हरी |
भव रोग महागद मान अरी ||९||

गुन सील कृपा परमायतनं |
प्रनमामि निरंतर श्रीरमणं |
रघुनंदन निकंदय द्वन्दधनं |
महि पाल बिलोकय दीन जनं ||१०||

दोहा:

बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग ||
बरनी उमापति राम गुन हरषि गए कैलास |
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||

Friday, 15 December 2023

Shri Mahalakshmi Ashtakam


अथ श्री इंद्रकृत श्री महालक्ष्मी अष्टक 

|| श्री महालक्ष्म्यष्टकम् || 

श्री गणेशाय नमः 

नमस्तेस्तू महामाये श्रीपिठे सूरपुजिते |
शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मी नमोस्तूते ||१|| 

नमस्ते गरूडारूढे कोलासूरभयंकरी |
सर्वपापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ||२|| 

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरी |
सर्वदुःखहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ||३|| 

सिद्धीबुद्धूीप्रदे देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी |
मंत्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ||४|| 

आद्यंतरहिते देवी आद्यशक्तीमहेश्वरी |
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोस्तूते ||५|| 

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्ती महोदरे |
महापापहरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ||६|| 

पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हस्वरूपिणी |
परमेशि जगन्मातर्रमहालक्ष्मी नमोस्तूते ||७|| 

श्वेतांबरधरे देवी नानालंकारभूषिते |
जगत्स्थितेजगन्मार्त महालक्ष्मी नमोस्तूते ||८|| 

फलश्रुति 

महालक्ष्म्यष्टकस्तोत्रं यः पठेत्भक्तिमान्नरः |
सर्वसिद्धीमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ||९|| 

एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनं |
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः ||१०|| 

त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रूविनाशनं |
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ||११|| 

||  इतिंद्रकृत श्रीमहालक्ष्म्यष्टकस्तवः संपूर्णः ||

श्री महालक्ष्मी अष्टकम देवी लक्ष्मी देवी को समर्पित प्रार्थना है। श्री महालक्ष्मी अष्टकम पद्म पुराण से लिया गया है और इस भक्तिपूर्ण प्रार्थना का उच्चारण भगवान इंद्र ने देवी महालक्ष्मी की स्तुति में किया था।  हिंदुओं के लिए देवी लक्ष्मी का अर्थ सौभाग्य है।  'लक्ष्मी' शब्द संस्कृत शब्द "लक्ष्य" से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'उद्देश्य' या 'लक्ष्य', और वह धन और समृद्धि की देवी हैं, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों। हिंदू पौराणिक कथाओं में, देवी लक्ष्मी, जिन्हें श्री भी कहा जाता है, हैं  भगवान विष्णु के दिव्य जीवनसाथी और उन्हें सृष्टि के रखरखाव और संरक्षण के लिए धन प्रदान करते हैं।  स्तोत्र का लाभ पाने के लिए प्रतिदिन श्री महालक्ष्मी अष्टकम का जाप करना चाहिए।


Shri Kanakadhara Stotram


|| श्री कनकधारा स्तोत्र ||

वन्दे वन्दारुमन्दारमिन्दिरानन्दकन्दलम् | अमन्दानन्दसन्दोहबन्धुरं सिन्धुराननम् || 

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् |
अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः ||१|| 

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि |
मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ||१|| 

विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि |
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ||३|| 

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् |
आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ||४|| 

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति |
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ||५|| 

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव |
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ||६|| 

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन |
मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ||७||

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे |
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ||८|| 

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते |
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ||९|| 

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति |
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ||१०|| 

श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्रयायै |
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ||११||

नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै |
नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ||१२|| 

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै |
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ||१६|| 

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै |
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ||१४|| 

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै |
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ||१५|| 

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नन्दनानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरुहाक्षि |
त्वद्-वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ||१६|| 

यत्कटाक्ष-समुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः |
सन्तनोति वचनाऽङ्गमानसैः स्त्वां मुरारि-हृदयेश्वरीं भजे ||१७|| 

सरसिज-निलये सरोजहस्ते धवळतरांशुक-गन्ध-माल्यशोभे |
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यम् ||१८|| 

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट स्वर्वाहिनीविमलचारु-जलप्लुताङ्गीम् |
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिराजगृहिणीम मृताब्धिपुत्रीम् ||१९|| 

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः |
अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ||२०|| 

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् |
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ||२१||

देवि प्रसीद जगदीश्वरि लोकमातः कल्यानगात्रि कमलेक्षणजीवनाथे |
दारिद्र्यभीतिहृदयं शरणागतं मां आलोकय प्रतिदिनं सदयैरपाङ्गैः || 

सुवर्णधारा स्तोत्रं यच्छङ्कराचार्य निर्मितं
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत् || 

|| इति श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत श्री कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् || 


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अङ्ग हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् |
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला
माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः ||१|| 

अर्थ – जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल के पेड़ का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ती रहती है तथा जिसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, वह सम्पूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की कटाक्षलीला मेरे लिए मंगलदायिनी हो। 

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि |
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या
सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ||२|| 

अर्थ – जैसे भ्रमरी महान कमलदल पर आती-जाती या मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो मुरशत्रु श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बारंबार प्रेमपूर्वक जाती और लज्जा के कारण लौट आती है, वह समुद्रकन्या लक्ष्मी की मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन-सम्पत्ति प्रदान करे। 

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्ष –
मानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि |
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्ध –
मिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ||३|| 

अर्थ – जो सम्पूर्ण देवताओं के अधिपति इन्द्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मुरारि श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनन्द प्रदान करनेवाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, वह लक्ष्मीजी के अधखुले नयनों की दृष्टि क्षणभर के लिए मुझपर भी थोड़ी सी अवश्य पड़े। 

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द –
मानन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् |
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ||४|| 

अर्थ – शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्रीलक्ष्मीजी का वह नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला हो, जिसकी पुतली तथा भौं प्रेमवश हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष नयनों से देखनेवाले आनन्दकन्द श्रीमुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं। 

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति |
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला
कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ||५|| 

अर्थ – जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि मण्डित वक्षस्थल में इन्द्रनीलमयी हारावली सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करनेवाली है, वह कमलकुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे। 

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारे –
र्धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव |
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति –
र्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ||६|| 

अर्थ – जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्यामसुन्दर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती हैं, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनन्दित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी हैं, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीया मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे। 

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्
माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन |
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ||७|| 

अर्थ – समुद्रकन्या कमला की वह मन्द, अलस, मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझपर पड़े। 

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा –
मस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे |
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ||८|| 

अर्थ – भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्मरूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद में पड़े हुए मुझ दीनरूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे। 

इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र –
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते |
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ||९|| 

अर्थ – विशिष्ट बुद्धिवाले मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी दयादृष्टि के प्रभाव से स्वर्गपद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं पद्मासना पद्मा की वह विकसित कमल गर्भ के समान कान्तिमती दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे। 

गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति |
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ||१०|| 

अर्थ – जो सृष्टि-लीला के समय ब्रह्मशक्ति के रूप में स्थित होती हैं, पालन-लीला करते समय वैष्णवी शक्ति के रूप में विराजमान होती हैं तथा प्रलय-लीला के काल में रुद्रशक्ति के रूप में अवस्थित होती हैं, उन त्रिभुवन के एक मात्र गुरु भगवान नारायण की नित्ययौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है। 

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै
रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै |
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ||११|| 

अर्थ – हे माता ! शुभ कर्मों का फल देनेवाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिन्धुरूप रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमलवन में निवास करनेवाली शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तमप्रिया पुष्टि को नमस्कार है। 

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै |
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै
नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ||१२|| 

अर्थ – कमलवदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिन्धु सम्भूता श्रीदेवी को नमस्कार है। चन्द्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै
नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै |
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै
नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ||१३|| 

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै
नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै |
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै
नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ||१४|| 

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै
नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै |
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै
नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ||१५||

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि |
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ||१६|| 

अर्थ – कमलसदृश नेत्रोंवाली माननीया माँ ! आपके चरणों में की हुई वन्दना सम्पत्ति प्रदान करनेवाली, सम्पूर्ण इन्द्रियों को आनन्द देनेवाली, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत है। मुझे आपकी चरणवन्दना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे। 

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः
सेवकस्य सकलार्थसम्पदः |
संतनोति वचनाङ्गमानसै –
स्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ||१७|| 

अर्थ – जिनके कृपाकटाक्ष के लिए की हुई उपासना उपासक के लिए सम्पूर्ण मनोरथों और सम्पत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मीदेवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ। 

सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे |
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ||१८|| 

अर्थ – भगवति हरिप्रिये ! तुम कमलवन में निवास करनेवाली हो, तुम्हारे हाथों में लीलाकमल सुशोभित है। तुम अत्यन्त उज्ज्वल वस्त्र, गन्ध और माला आदि से शोभा पा रही हो। तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली देवि ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ। 

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट –
स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम् |
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष –
लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ||१९|| 

अर्थ – दिग्गजों द्वारा सुवर्ण कलश के मुख से गिराये गये आकाशगंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्रीअंगों का अभिषेक किया जाता है, सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रातःकाल प्रणाम करता हूँ।

कमले कमलाक्षवल्लभे
त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्‌गैः |
अवलोकय मामकिञ्चनानां
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ||२०|| 

अर्थ – कमलनयन केशव की कमनीय कामिनी कमले ! मैं अकिंचन ( दीनहीन ) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरल तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो। 

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् |
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो
भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ||२१|| 

अर्थ – जो लोग इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयीस्वरूपा त्रिभुवनजननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यन्त सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभाव को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। 

|| इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम् || 

इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्य रचित कनकधारा स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ॥


Gajendra Moksha Stotra 


|| श्री गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र || 

श्रीशुक उवाच 

एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि |
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ||१|| 

गजेन्द्र उवाच ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् |
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ||२|| 

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् |
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ||३|| 

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद् विभातं क्व च तत् तिरोहितम् |
अविद्धक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ||४|| 

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु |
तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ||५|| 

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम् |
यथा नटश्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ||६|| 

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः |
चरन्त्यलोकवतमवणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः || ७|| 

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा |
तथापि लोकाप्ययसंभवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ||८|| 

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये |
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ||९|| 

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने |
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ||१०|| 

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्येण विपश्चिता |
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ||११|| 

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे |
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ||१२|| 

क्षेत्रक्षाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे |
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ||१३|| 

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्टे सर्वप्रत्ययहेतवे |
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ||१४|| 

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाभूतकारणाय |
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ||१५|| 

गुणारणिच्छन्नचिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय |
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ||१६|| 

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय |
वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ||१७|| 

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय |
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ||१८|| 

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति |
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ||१९|| 

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थ वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः |
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं गायन्त आनन्दसमुद्रमनाः ||२०|| 

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम् |
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदरमनन्तमायं परिपूर्णमीडे ||२१|| 

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः |
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ||२२|| 

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः |
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ||२३|| 

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः |
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः ||२४|| 

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या |
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ||२५|| 

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम् |
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ||२६|| 

योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते |
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ||२७|| 

नमस्तुभ्यमसहावेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय |
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवमने ||२८|| 

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छन्त्याहंधिया हतम्  |
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्यहम् ||२९|| 

श्रीशुक उवाच एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेष ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः |
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ||३०|| 

तं तद्वदातमुपलभ्य जगनिवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः |
छन्दोमयन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ||३१|| 

सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आततॊ दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम् |
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते ||३२|| 

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोजहार |
ग्राहाद् विपाटितमुखारिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम् ||३३||


श्रीमद्भागवत ८ । ३ । १-३३ )
(अनुवादक-स्वामीजी श्रीअखण्डानन्दजी सरस्वती) 

( इस स्तोत्रके श्रद्धापूर्वक पाठ, अनुष्ठानसे ऋणसंकट, मृत्युसंकट आदि दूर होते हैं । महामना मालवीयजीके द्वारा बार-बार अनुभूत है।) 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् ! अपनी बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मनको हृदयमें एकाग्र किया 

और फिर पूर्वजन्ममें सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्रके जपद्वारा भगवान्की स्तुति करने लगा ||१|| 

गजेन्द्रने कहा-जो जगत्के मूल कारण हैं और सबके हृदयमें पुरुषके रूपमें विराजमान हैं एवं समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसारमें चेतनताका विस्तार होता है-उन भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेमसे उनका ध्यान करता हूँ ||२|| 

यह संसार उन्हींमें स्थित है, उन्हींकी सत्तासे प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूपमें प्रकट हो रहे हैं । यह सब होनेपर भी वे इस संसार और इसके कारण–प्रकृतिसे सर्वथा परे हैं । उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान्की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ||३|| 

यह विश्व-प्रपञ्च उन्हींकी मायासे उनमें अध्यस्त है । यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों-एक-सी रहती है । वे इसके साक्षी हैं और उन दोनोंको ही देखते रहते हैं । वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं । कोई दूसरा उनका कारण नहीं है । वे ही समस्त कार्य और कारणोंसे अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें ||४|| 

प्रलयके समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्णरूपसे नष्ट हो जाते हैं । उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार-ही-अन्धकार रहता है । परंतु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं । वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें ||५|| 

उनकी लीलाओंका रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नटकी भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं । उनके वास्तविक स्वरूपको न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही; फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहाँतक जा सके और उसका वर्णन कर सके ? वे प्रभु मेरी रक्षा करें ||६|| 

जिनके परम मङ्गलमय स्वरूपका दर्शन करनेके लिये महात्मागण संसारकी समस्त आसक्तियोंका परित्याग कर देते हैं और वनमें जाकर अखण्डभावसे ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतोंका पालन करते हैं तथा अपने आत्माको सबके हृदयमें विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं वे ही मुनियोंके सर्वस्व भगवान् मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं ||७|| 

न उनके जन्म-कर्म हैं और न नामरूप; फिर उनके सम्बन्धमें गुण और दोषकी तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है ? फिर भी विश्वकी सृष्टि और संहार करनेके लिये समय-समयपर वे उन्हें अपनी मायासे स्वीकार करते है ||८|| 

उन्हीं अनन्त शक्तिमान् सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होनेपर भी बहुरूप हैं । उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं । मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ||९|| 

स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ । जो मन, वाणी और चित्तसे अत्यन्त दूर हैं—उन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ||१०|| 

विवेकी पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पणके द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरोंको कैवल्य-मुक्ति देनेकी सामर्थ्य भी केवल उन्हींमें हैउन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ||११|| 

जो सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणोंका धर्म स्वीकार करके क्रमशः शान्त, बोर और मूढ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभावसे स्थित एवं ज्ञानघन प्रभुको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ||१२|| 

आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रोंके एक मात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं। आपको मेरे बार-बार नमस्कार ||१३|| 

आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयोंके द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियोंके आधार हैं । अहङ्कार आदि छायारूप असत् वस्तुओंके द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है । समस्त वस्तुओंकी सत्ताके रूपमें भी केवल आप ही भास रहे हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ||१४|| 

आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है । तथा कारण होनेपर भी आपमें विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ! जैसे समस्त नदी-झरने आदिका परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रोंके परम तात्पर्य हैं । आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ ||१५|| 

जैसे यज्ञके काष्ठ अरणिमें अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञानको गुणोंकी मायासे ढक रक्खा है । गुणोंमें क्षोभ होनेपर उनके द्वारा विविध प्रकारकी सृष्टिरचनाका आप संकल्प करते हैं । जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पणके द्वारा आत्मतत्त्वकी भावना करके वेद-शास्त्रोंसे ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्माके रूपमें आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं । आपको मैं नमस्कार करता हूँ ||१६|| 

_जैसे कोई दयालु पुरुष फंदेमें पड़े हुए पशुका बन्धन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतोंकी फाँसी काट देते हैं । आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तोंका कल्याण करनेमें आप कभी आलस्य नहीं करते । आपके चरणोंमें मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियोंके हृदयमें अपने अंशके द्वारा अन्तरात्माके रूपमें आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ||१७|| 

जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनोंमें आसक्त हैं उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त __कठिन है, क्योंकि आप स्वयं गुणोंकी आसक्तिसे रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदयमें आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वैश्वर्यपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ || १८||

धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी कामनासे मनुष्य उन्हींका भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकारका सुख देते हैं और अपनेही-जैसा अविनाशी पार्षद-शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें ||१९|| 

जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हींकी शरणमें रहते हुए उनसे किसी भी वस्तुकी–यहाँतक कि मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मङ्गलमयी लीलाओंका गान करते हुए आनन्दके समुद्र में निमग्न रहते हैं ||२०|| 

जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान् , अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहनेपर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं, जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोगके द्वारा प्राप्त होते हैं उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्माकी मैं स्तुति करता हूँ ||२१|| 

जिनकी अत्यन्त छोटी कलासे अनेकों नाम-रूपके भेदभावसे युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकोंकी सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आगसे लपटें और प्रकाशमान सूर्यसे उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मासे बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर-जो गुणोंके प्रवाहरूप हैं—बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान् न देवता है और न असुर। ||२२|| 

वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक । वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही । सबका निषेध हो जानेपर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धारके लिये प्रकट हो ||२४|| 

मैं जीना नहीं चाहता । यह हाथीकी योनि बाहर और भीतर—सब ओरसे अज्ञानरूप आवरणके द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है ? मैं तो आत्मप्रकाशको ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरणसे छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रमसे अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञानके द्वारा ही नष्ट होता है ||२५|| 

इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्माकी शरणमें हूँ, जो विश्वरहित होनेपर भी विश्वके रचयिता और विश्वस्वरूप हैंसाथ ही जो विश्वकी अन्तरात्माके रूपमें विश्वरूप सामग्रीसे क्रीडा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपद-स्वरूप ब्रह्मको मैं नमस्कार करता हूँ ||२६|| 

योगीलोग योगके द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफलको भस्म करके अपने योगदान हृदयमें जिन योगेश्वर भगवान्का साक्षात्कार करते हैं उन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ||२७|| 

प्रभो ! आपकी तीन शक्तियों के सत्त्व, रज और तमके रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मनके विषयोंके रूपमें भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं । इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्तिका मार्ग भी नहीं पा सकते । आपकी शक्ति अनन्त है । आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ||२८|| 

आपकी माया अहंबुद्धिसे आत्माका स्वरूप ढक गया है, इसीसे यह जीव अपने स्वरूपको नहीं जान पाता । आपकी महिमा अपार है । उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान्की मैं शरणमें हूँ ||२९|| 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् ! गजेन्द्रने बिना किसी भेदभावके निर्विशेषरूपसे भगवान्की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूपको अपना स्वरूप माननेवाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करनेके लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होनेके कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये ||३०|| 

विश्वके एकमात्र आधार भगवान्ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। अतः उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़पर सवार हो चक्रधारी भगवान् बड़ी शीघ्रतासे वहाँके लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकटमें पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये ||३१|| 

सरोवरके भीतर बलवान् ग्राहने गजेन्द्रको - पकड़ रक्खा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाशमें गरुड़पर सवार होकर हाथमें चक्र लिये भगवान् श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूंडमें कमलका एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपरको उठाया और बड़े कष्टसे बोला—'नारायण ! जगद्गुरो ! भगवन् ! आपको नमस्कार है ||३२|| 

जब भगवान्ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड़को छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्रके साथ ही ग्राहको भी बड़ी शीघ्रतासे सरोवरसे बाहर निकाल लाये । फिर सब देवताओंके सामने ही भगवान् श्रीहरिने चक्रसे ग्राहका मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्रको छुड़ा लिया ||३३|| 

श्री गजेन्द्र मोक्ष स्तवन - गजेन्द्र मोक्ष पद्यानुवाद 




Lakshmi Hrudayam Stotram


|| श्री लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम् || 

। श्रीगणेशाय नमः ।
। हरिः ॐ ।
॥ ॐ तत्सत् ॥ 

। अथ स्तोत्रम् । 

अस्य श्री आद्यादि श्रीमहालक्ष्मी-हृदय-स्तोत्र-महामन्त्रस्य भार्गव ऋषिः(शिरसि),
अनुष्टुपादि नानाछन्दांसि (मुखे), आद्यादि-श्रीमहालक्ष्मी सहित नारायणो देवता (हृदये)॥
। ॐ बीजं, ह्रीं शक्तिः, ऐं कीलकम् ।
आद्यादि-श्रीमहालक्ष्मी-प्रसादसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥ 

ॐ ॥ आद्यादि-श्रीमहालक्ष्मी देवतयै नमः'' हृदये,श्रीं बीजायै नमः” गुह्ये,
ह्रीं शक्त्यै नमः'' पादयोः,ऐं बलायै नमः” मूर्धादि-पाद-पर्यन्तं विन्यसेत् ॥ 

ॐ श्रीं ह्रीं ऐं करतल-करपार्श्वयोः, श्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः,
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, ऐं मध्यमाभ्यां नमः, श्रीं अनामिकाभ्यां नमः,
ह्रीं कनिष्टिकाभ्यां नमः, ऐं करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥ 

ॐ हृदयाय नमः, ह्रीं शिरसे स्वाहा, ऐं शिखायै वषट्,
श्रीं कवचाय हुम्, ह्रीं नेत्राभ्यां वौषट्, भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बन्धः ॥ 

॥ अथ ध्यानम् ॥ 

हस्तद्वयेन कमले धारयन्तीं स्वलीलया ॥
हार-नूपुर-संयुक्तां महालक्ष्मीं विचिन्तयेत् ॥ 

कौशेय-पीतवसनामरविन्दनेत्राम्
पद्मद्वयाभय-वरोद्यत-पद्महस्ताम् ।
उद्यच्छतार्क-सदृशां परमाङ्क-संस्थां
ध्यायेत् विधीशनत-पादयुगां जनित्रीम् ॥ 

॥श्रीलक्ष्मी-कमलधारिण्यै सिंहवाहिन्यै स्वाहा ॥ 

पीतवस्त्रां सुवर्णाङ्गीं पद्महस्त-द्वयान्विताम् ।
लक्ष्मीं ध्यात्वेति मन्त्रेण स भवेत् पृथिवीपतिः ॥ 

मातुलङ्ग-गदाखेटे पाणौ पात्रञ्च बिभ्रती ।
वागलिङ्गञ्च मानञ्च बिभ्रती नृपमूर्धनि ॥ 

। ॐ श्रीं ह्रीं ऐम् । 

वन्दे लक्ष्मीं परशिवमयीं शुद्धजाम्बूनदाभां
तेजोरूपां कनक-वसनां सर्वभूषोज्ज्वलाङ्गीम् ।
बीजापूरं कनक-कलशं हेमपद्मं दधानाम्
आद्यां शक्तिं सकलजननीं विष्णु-वामाङ्कसंस्थाम् ॥ १॥ 

श्रीमत्सौभाग्यजननीं स्तौमि लक्ष्मीं सनातनीम् ।
सर्वकाम-फलावाप्ति-साधनैक-सुखावहाम् ॥ २॥ 

स्मरामि नित्यं देवेशि त्वया प्रेरितमानसः ।
त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि परमेश्वरीम् ॥ ३॥ 

समस्त-सम्पत्सुखदां महाश्रियं
समस्त-कल्याणकरीं महाश्रियम् ।
समस्त-सौभाग्यकरीं महाश्रियं
भजाम्यहं ज्ञानकरीं महाश्रियम् ॥ ४॥ 

विज्ञानसम्पत्सुखदां महाश्रियं
विचित्र-वाग्भूतिकरीं मनोहराम् ।
अनन्त-सौभाग्य-सुखप्रदायिनीं
नमाम्यहं भूतिकरीं हरिप्रियाम् ॥ ५॥ 

समस्त-भूतान्तरसंस्थिता त्वं
समस्त-भक्तेश्श्वरि विश्वरूपे ।
तन्नास्ति यत्त्वद्व्यतिरिक्तवस्तु
त्वत्पादपद्मं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ ६॥ 

दारिद्र्य-दुःखौघ-तमोऽपहन्त्रि त्वत्-पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ।
दीनार्ति-विच्छेदन-हेतुभूतैः कृपाकटाक्षैरभिषिञ्च मां श्रीः ॥ ७॥ 

विष्णु-स्तुतिपरां लक्ष्मीं स्वर्णवर्णां स्तुति-प्रियाम् ।
वरदाभयदां देवीं वन्दे त्वां कमलेक्षणे ॥ ८॥ 

अम्ब प्रसीद करुणा-परिपूर्ण-दृष्ट्या
मां त्वत्कृपाद्रविणगेहमिमं कुरुष्व ।
आलोकय प्रणत-हृद्गत-शोकहन्त्रि
त्वत्पाद-पद्मयुगलं प्रणमाम्यहं श्रीः ॥ ९॥ 

शान्त्यै नमोऽस्तु शरणागत-रक्षणायै
कान्त्यै नमोऽस्तु कमनीय-गुणाश्रयायै ।
क्षान्त्यै नमोऽस्तु दुरितक्षय-कारणायै
धात्र्यै नमोऽस्तु धन-धान्य-समृद्धिदायै ॥ १०॥ 

शक्त्यै नमोऽस्तु शशिशेखर-संस्थितायै
रत्यै नमोऽस्तु रजनीकर-सोदरायै ।
भक्त्यै नमोऽस्तु भवसागर-तारकायै
मत्यै नमोऽस्तु मधुसूदन-वल्लभायै ॥ ११॥ 

लक्ष्म्यै नमोऽस्तु शुभ-लक्षण-लक्षितायै
सिद्ध्यै नमोऽस्तु सुर-सिद्ध-सुपूजितायै ।
धृत्यै नमोऽस्तु मम दुर्गति-भञ्जनायै
गत्यै नमोऽस्तु वरसद्गति-दायकायै ॥ १२॥ 

देव्यै नमोऽस्तु दिवि देवगणार्चितायै
भूत्यै नमोऽस्तु भुवनार्ति-विनाशनायै ।
शान्त्यै नमोऽस्तु धरणीधर-वल्लभायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥ १३॥ 

सुतीव्र-दारिद्र्य-तमोऽपहन्त्र्यै नमोऽस्तु ते सर्व-भयापहन्त्र्यै ।
श्रीविष्णु-वक्षःस्थल-संस्थितायै नमो नमः सर्व-विभूति-दायै ॥ १४॥ 

जयतु जयतु लक्ष्मीः लक्षणालङ्कृताङ्गी
जयतु जयतु पद्मा पद्मसद्माभिवन्द्या ।
जयतु जयतु विद्या विष्णु-वामाङ्क-संस्था
जयतु जयतु सम्यक् सर्व-सम्पत्करी श्रीः ॥१५॥ 

जयतु जयतु देवी देवसङ्घाभिपूज्या
जयतु जयतु भद्रा भार्गवी भाग्यरूपा ।
जयतु जयतु नित्या निर्मलज्ञानवेद्या
जयतु जयतु सत्या सर्वभूतान्तरस्था ॥१६॥ 

जयतु जयतु रम्या रत्नगर्भान्तरस्था
जयतु जयतु शुद्धा शुद्धजाम्बूनदाभा ।
जयतु जयतु कान्ता कान्तिमद्भासिताङ्गी
जयतु जयतु शान्ता शीघ्रमागच्छ सौम्ये ॥१७॥ 

यस्याः कलायाः कमलोद्भवाद्या रुद्राश्च शक्रप्रमुखाश्च देवाः ।
जीवन्ति सर्वेऽपि सशक्तयस्ते प्रभुत्वमाप्ताः परमायुषस्ते ॥ १८॥ 

॥ मुखबीजम् ॥ ॐ-ह्रां-ह्रीं-अं-आं-यं-दुं-लं-वम् ॥ 

लिलेख निटिले विधिर्मम लिपिं विसृज्यान्तरं
त्वया विलिखितव्यमेतदिति तत्फलप्राप्तये ।
तदन्तिकफलस्फुटं कमलवासिनि श्रीरिमां
समर्पय स्वमुद्रिकां सकलभाग्यसंसूचिकाम् ॥१९॥ 

॥ पादबीजम् ॥ ॐ-अं-आं-ईं-एं-ऐं-कं-लं-रं ॥ 

कलया ते यथा देवि जीवन्ति सचराचराः ।
तथा सम्पत्करी लक्ष्मि सर्वदा सम्प्रसीद मे ॥२०॥ 

यथा विष्णुर्ध्रुवं नित्यं स्वकलां संन्यवेशयत् ।
तथैव स्वकलां लक्ष्मि मयि सम्यक् समर्पय ॥२१॥ 

सर्वसौख्यप्रदे देवि भक्तानामभयप्रदे ।
अचलां कुरु यत्नेन कलां मयि निवेशिताम् ॥२२॥ 

मुदास्तां मत्फाले परमपदलक्ष्मीः स्फुटकला
सदा वैकुण्ठश्रीर्निवसतु कला मे नयनयोः ।
वसेत्सत्ये लोके मम वचसि लक्ष्मीर्वरकला
श्रियश्वेतद्वीपे निवसतु कला मे स्व-करयोः ॥२३॥ 

॥ नेत्रबीजम् ॥ ॐ-घ्रां-घ्रीं-घ्रें-घ्रैं-घ्रों-घ्रौं-घ्रं-घ्रः ॥ 

तावन्नित्यं ममाङ्गेषु क्षीराब्धौ श्रीकला वसेत् ।
सूर्याचन्द्रमसौ यावद्यावल्लक्ष्मीपतिः श्रियौ ॥२४॥ 

सर्वमङ्गलसम्पूर्णा सर्वैश्वर्यसमन्विता ।
आद्याऽऽदिश्रीर्महालक्ष्मीस्त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥२५॥ 

अज्ञानतिमिरं हन्तुं शुद्धज्ञानप्रकाशिका ।
सर्वैश्वर्यप्रदा मेऽस्तु त्वत्कला मयि संस्थिता ॥२६॥ 

अलक्ष्मीं हरतु क्षिप्रं तमः सूर्यप्रभा यथा ।
वितनोतु मम श्रेयस्त्वत्कला मयि संस्थिता ॥२७॥ 

ऐश्वर्यमङ्गलोत्पत्तिः त्वत्कलायां निधीयते ।
मयि तस्मात्कृतार्थोऽस्मि पात्रमस्मि स्थितेस्तव ॥२८॥ 

भवदावेशभाग्यार्हो भाग्यवानस्मि भार्गवि ।
त्वत्प्रसादात्पवित्रोऽहं लोकमातर्नमोऽस्तु ते ॥२९॥ 

पुनासि मां त्वत्कलयैव यस्मात्
अतस्समागच्छ ममाग्रतस्त्वम् ।
परं पदं श्रीर्भव सुप्रसन्ना
मय्यच्युतेन प्रविशादिलक्ष्मीः ॥३०॥ 

श्रीवैकुण्ठस्थिते लक्ष्मि समागच्छ ममाग्रतः ।
नारायणेन सह मां कृपादृष्ट्याऽवलोकय ॥३१॥ 

सत्यलोकस्थिते लक्ष्मि त्वं ममागच्छ सन्निधिम् ।
वासुदेवेन सहिता प्रसीद वरदा भव ॥३२॥ 

श्वेतद्वीपस्थिते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ सुव्रते ।
विष्णुना सहिता देवि जगन्मातः प्रसीद मे ॥३३॥ 

क्षीराम्बुधिस्थिते लक्ष्मि समागच्छ समाधवे ।
त्वत्कृपादृष्टिसुधया सततं मां विलोकय ॥३४॥ 

रत्नगर्भस्थिते लक्ष्मि परिपूर्णहिरण्मयि ।
समागच्छ समागच्छ स्थित्वाऽऽशु पुरतो मम ॥३५॥ 

स्थिरा भव महालक्ष्मि निश्चला भव निर्मले ।
प्रसन्नकमले देवि प्रसन्नहृदया भव ॥३६॥ 

श्रीधरे श्रीमहालक्ष्मि त्वदन्तःस्थं महानिधिम् ।
शीघ्रमुद्धृत्य पुरतः प्रदर्शय समर्पय ॥३७॥ 

वसुन्धरे श्रीवसुधे वसुदोग्ध्रि कृपामयि ।
त्वत्कुक्षिगतसर्वस्वं शीघ्रं मे सम्प्रदर्शय ॥३८॥ 

विष्णुप्रिये रत्नगर्भे समस्तफलदे शिवे ।
त्वद्गर्भगतहेमादीन् सम्प्रदर्शय दर्शय ॥३९॥ 

रसातलगते लक्ष्मि शीघ्रमागच्छ मे पुरः ।
न जाने परमं रूपं मातर्मे सम्प्रदर्शय ॥४०॥ 

आविर्भव मनोवेगात् शीघ्रमागच्छ मे पुरः ।
मा वत्स भैरिहेत्युक्त्वा कामं गौरिव रक्ष माम् ॥४१॥ 

देवि शीघ्रं समागच्छ धरणीगर्भसंस्थिते ।
मातस्त्वद्भृत्यभृत्योऽहं मृगये त्वां कुतूहलात् ॥४२॥ 

उत्तिष्ठ जागृहि त्वं मे समुत्तिष्ठ सुजागृहि ।
अक्षयान् हेमकलशान् सुवर्णेन सुपूरितान् ॥४३॥ 

निक्षेपान्मे समाकृष्य समुद्धृत्य ममाग्रतः ।
समुन्नतानना भूत्वा सम्यग्धेहि धरातलात् ॥४४॥ 

मत्सन्निधिं समागच्छ मदाहितकृपारसात् ।
प्रसीद श्रेयसां दोग्ध्रि लक्ष्मि मे नयनाग्रतः ॥४५॥ 

अत्रोपविश्य लक्ष्मि त्वं स्थिरा भव हिरण्मयी ।
सुस्थिरा भव सम्प्रीत्या प्रसन्ना वरदा भव ॥४६॥ 

आनीतांस्तु त्वया देवि निधीन्मे सम्प्रदर्शय ।
अद्य क्षणेन सहसा दत्त्वा संरक्ष मां सदा ॥४७॥ 

मयि तिष्ठ तथा नित्यं यथेन्द्रादिषु तिष्ठसि ।
अभयं कुरु मे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥४८॥ 

समागच्छ महालक्ष्मि शुद्धजाम्बूनद-स्थिते ।
प्रसीद पुरतः स्थित्वा प्रणतं मां विलोकय ॥४९॥ 

लक्ष्मीर्भुवं गता भासि यत्र यत्र हिरण्मयी ।
तत्र तत्र स्थिता त्वं मे तव रूपं प्रदर्शय ॥५०॥ 

क्रीडन्ती बहुधा भूमौ परिपूर्णकृपा मयि ।
मम मूर्धनि ते हस्तमविलम्बितमर्पय ॥५१॥ 

फलद्भाग्योदये लक्ष्मि समस्तपुरवासिनि ।
प्रसीद मे महालक्ष्मि परिपूर्णमनोरथे ॥५२॥ 

अयोध्यादिषु सर्वेषु नगरेषु समास्थिते ।
विभवैर्विविधैर्युक्तैः समागच्छ मुदान्विते ॥५३॥ 

समागच्छ समागच्छ ममाग्रे भव सुस्थिरा ।
करुणारसनिष्यन्दनेत्रद्वयविशालिनि ॥ ५४॥ 

सन्निधत्स्व महालक्ष्मि त्वत्पाणिं मम मस्तके ।
करुणासुधया मां त्वमभिषिच्य स्थिरं कुरु ॥ ५५॥ 

सर्वराजगृहे लक्ष्मि समागच्छ बलान्विते ।
स्थित्वाऽऽशु पुरतो मेऽद्य प्रसादेनाभयं कुरु ॥ ५६॥ 

सादरं मस्तके हस्तं मम त्वं कृपयाऽर्पय ।
सर्वराजस्थिते लक्ष्मि त्वत्कला मयि तिष्ठतु ॥ ५७॥ 

आद्यादि श्रीर्महालक्ष्मि विष्णुवामाङ्कसंस्थिते ।
प्रत्यक्षं कुरु मे रूपं रक्ष मां शरणागतम् ॥ ५८॥ 

प्रसीद मे महालक्ष्मि सुप्रसीद महाशिवे ।
अचला भव सुप्रीता सुस्थिरा भव मद्गृहे ॥ ५९॥ 

यावत्तिष्ठन्ति वेदाश्च यावच्चन्द्र-दिवाकरौ ।
यावद्विष्णुश्च यावत्त्वं तावत्कुरु कृपां मयि ॥ ६०॥ 

चान्द्री कला यथा शुक्ले वर्धते सा दिने दिने ।
तथा दया ते मय्येव वर्धतामभिवर्धताम् ॥ ६१॥ 

यथा वैकुण्ठनगरे यथा वै क्षीरसागरे ।
तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ ६२॥ 

योगिनां हृदये नित्यं यथा तिष्ठसि विष्णुना ।
तथा मद्भवने तिष्ठ स्थिरं श्रीविष्णुना सह ॥ ६३॥ 

नारायणस्य हृदये भवती यथाऽऽस्ते
नारायणोऽपि तव हृत्कमले यथाऽऽस्ते ।
नारायणस्त्वमपि नित्यविभू तथैव
तौ तिष्ठतां हृदि ममापि दयान्वितौ श्रीः ॥ ६४॥ 

विज्ञानवृद्धिं हृदये कुरु श्रीः सौभाग्यवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ।
दयासुवृद्धिं कुरुतां मयि श्रीः सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ ६५॥ 

न मां त्यजेथाः श्रितकल्पवल्लि सद्भक्ति-चिन्तामणि-कामधेनो ।
न मां त्यजेथा भव सुप्रसन्ने गृहे कलत्रेषु च पुत्रवर्गे ॥ ६६॥ 

॥ कुक्षिबीजम् ॥ ॐ-अं-आं-ईं-एं-ऐं ॥ 

आद्यादिमाये त्वमजाण्डबीजं त्वमेव साकार-निराकृती त्वम् ।
त्वया धृताश्चाब्जभवाण्डसङ्घाश्चित्रं चरित्रं तव देवि विष्णोः ॥ ६७॥ 

ब्रह्मरुद्रादयो देवा वेदाश्चापि न शक्नुयुः ।
महिमानं तव स्तोतुं मन्दोऽहं शक्नुयां कथम् ॥ ६८॥ 

अम्ब त्वद्वत्सवाक्यानि सूक्तासूक्तानि यानि च ।
तानि स्वीकुरु सर्वज्ञे दयालुत्वेन सादरम् ॥ ६९॥ 

भवन्तं शरणं गत्वा कृतार्थाः स्युः पुरातनाः ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा त्वामहं शरणं व्रजे ॥ ७०॥ 

अनन्ता नित्यसुखिनः त्वद्भक्तास्त्वत्परायणाः ।
इति वेदप्रमाणाद्धि देवि त्वां शरणं व्रजे ॥ ७१॥ 

तव प्रतिज्ञा मद्भक्ता न नश्यन्तीत्यपि क्वचित् ।
इति सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य प्राणान् सन्धारयाम्यहम् ॥ ७२॥ 

त्वदधीनस्त्वहं मातः त्वत्कृपा मयि विद्यते ।
यावत्सम्पूर्णकामः स्यां तावद्देहि दयानिधे ॥ ७३॥ 

क्षणमात्रं न शक्नोमि जीवितुं त्वत्कृपां विना ।
न हि जीवन्ति जलजा जलं त्यक्त्वा जलाश्रयाः ॥ ७४॥ 

यथा हि पुत्रवात्सल्यात् जननी प्रस्नुतस्तनी ।
वत्सं त्वरितमागत्य सम्प्रीणयति वत्सला ॥ ७५॥ 

यदि स्यां तव पुत्रोऽहं माता त्वं यदि मामकी ।
दयापयोधर-स्तन्य-सुधाभिरभिषिञ्च माम् ॥ ७६॥ 

मृग्यो न गुणलेशोऽपि मयि दोषैक-मन्दिरे ।
पांसूनां वृष्टिबिन्दूनां दोषाणां च न मे मतिः ॥ ७७॥ 

पापिनामहमेकाग्रो दयालूनां त्वमग्रणीः ।
दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये ॥ ७८॥ 

विधिनाहं न सृष्टश्चेत् न स्यात्तव दयालुता ।
आमयो वा न सृष्टश्चेदौषधस्य वृथोदयः ॥ ७९॥ 

कृपा मदग्रजा किं ते अहं किं वा तदग्रजः ।
विचार्य देहि मे वित्तं तव देवि दयानिधे ॥ ८०॥ 

माता पिता त्वं गुरुः सद्गतिः श्रीः
त्वमेव सञ्जीवनहेतुभूता ।
अन्यं न मन्ये जगदेकनाथे
त्वमेव सर्वं मम देवि सत्यम् ॥ ८१॥ 

॥ हृदय बीजम् ॥ 

ॐ-घ्रां-घ्रीं-घ्रूं-घ्रें-घ्रों-घ्रः-हुं फट् कुरु कुरु स्वाहा ॥ 

आद्यादिलक्ष्मीर्भव सुप्रसन्ना विशुद्धविज्ञानसुखैकदोग्ध्रि ।
अज्ञानहन्त्री त्रिगुणातिरिक्ता प्रज्ञाननेत्री भव सुप्रसन्ना ॥ ८२॥ 

अशेषवाग्जाड्य-मलापहन्त्री नवं नवं सुष्टु सुवाक्यदायिनी ।
ममैव जिह्वाग्रसुरङ्गवर्तिनी भव प्रसन्ना वदने च मे श्रीः ॥ ८३॥ 

समस्तसम्पत्सु विराजमाना समस्ततेजस्सु विभासमाना ।
विष्णुप्रिये त्वं भव दीप्यमाना वाग्देवता मे नयने प्रसन्ना ॥ ८४॥ 

सर्वप्रदर्शे सकलार्थदे त्वं प्रभासुलावण्यदयाप्रदोग्ध्रि ।
सुवर्णदे त्वं सुमुखी भव श्रीर्हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ ८५॥ 

सर्वार्थदा सर्वजगत्प्रसूतिः सर्वेश्वरी सर्वभयापहन्त्री ।
सर्वोन्नता त्वं सुमुखी च नः श्रीर्हिरण्मयी मे भव सुप्रसन्ना ॥ ८६॥ 

समस्त-विघ्नौघ-विनाशकारिणी समस्त-भक्तोद्धरणे विचक्षणा ।
अनन्तसम्मोद-सुखप्रदायिनी हिरण्मयी मे नयने प्रसन्ना ॥ ८७॥ 

देवि प्रसीद दयनीयतमाय मह्यं
देवाधिनाथ-भव-देवगणाभिवन्द्ये ।
मातस्तथैव भव सन्निहिता दृशोर्मे
पत्या समं मम मुखे भव सुप्रसन्ना ॥ ८८॥ 

मा वत्स भैरभयदानकरोऽर्पितस्ते
मौलौ ममेति मयि दीनदयानुकम्पे ।
मातः समर्पय मुदा करुणाकटाक्षं
माङ्गल्यबीजमिह नः सृज जन्म मातः ॥ ८९॥ 

॥ कण्ठबीजम् ॥ ॐ-श्रां-श्रीं-श्रूं-श्रैं-श्रौं-श्रं-श्राः ॥ 

कटाक्ष इह कामधुक् तव मनस्तु चिन्तामणिः
करः सुरतरुः सदा नवनिधिस्त्वमेवेन्दिरे ।
भवेत्तव दयारसो मम रसायनं चान्वहं
मुखं तव कलानिधिर्विविध-वाञ्छितार्थप्रदम् ॥ ९०॥ 

यथा रसस्पर्शनतोऽयसोऽपि सुवर्णता स्यात्कमले तथा ते ।
कटाक्षसंस्पर्शनतो जनानाममङ्गलानामपि मङ्गलत्वम् ॥ ९१॥ 

देहीति नास्तीति वचः प्रवेशाद् भीतो रमे त्वां शरणं प्रपद्ये ।
अतः सदास्मिन्नभयप्रदा त्वं सहैव पत्या मयि सन्निधेहि ॥ ९२॥ 

कल्पद्रुमेण मणिना सहिता सुरम्या
श्रीस्ते कला मयि रसेन रसायनेन ।
आस्तामतो मम च दृक्करपाणिपाद-
स्पृष्ट्याः सुवर्णवपुषः स्थिरजङ्गमाः स्युः ॥ ९३॥ 

आद्यादिविष्णोः स्थिरधर्मपत्नी त्वमेव पत्या मम सन्निधेहि ।
आद्यादिलक्ष्मि त्वदनुग्रहेण पदे पदे मे निधिदर्शनं स्यात् ॥ ९४॥ 

आद्यादिलक्ष्मीहृदयं पठेद्यः स राज्यलक्ष्मीमचलां तनोति ।
महादरिद्रोऽपि भवेद्धनाढयः तदन्वये श्रीः स्थिरतां प्रयाति ॥ ९५॥ 

यस्य स्मरणमात्रेण तुष्टा स्याद्विष्णुवल्लभा ।
तस्याभीष्टं ददत्याशु तं पालयति पुत्रवत् ॥ ९६॥ 

इदं रहस्यं हृदयं सर्वकामफलप्रदम् ।
जपः पञ्चसहस्रं तु पुरश्चरणमुच्यते ॥ ९७॥ 

त्रिकालमेककालं वा नरो भक्तिसमन्वितः ।
यः पठेत् श‍ृणुयाद्वापि स याति परमां श्रियम् ॥ ९८॥ 

महालक्ष्मीं समुद्दिश्य निशि भार्गववासरे ।
इदं श्रीहृदयं जप्त्वा पञ्चवारं धनी भवेत् ॥ ९९॥ 

अनेन हृदयेनान्नं गर्भिण्या अभिमन्त्रितम् ।
ददाति तत्कुले पुत्रो जायते श्रीपतिः स्वयम् ॥ १००॥ 

नरेणाप्यथवा नार्या लक्ष्मीहृदयमन्त्रिते ।
जले पीते च तद्वंशे मन्दभाग्यो न जायते ॥ १०१॥ 

य आश्वयुङ्मासि च शुक्लपक्षे रमोत्सवे सन्निहिते च भक्त्या ।
पठेत्तथैकोत्तरवारवृद्ध्या लभेत्स सौवर्णमयीं सुवृष्टिम् ॥ १०२॥ 

य एकभक्त्याऽन्वहमेकवर्षं विशुद्धधीः सप्ततिवारजापी ।
स मन्दभाग्योऽपि रमाकटाक्षात् भवेत्सहस्राक्षशताधिकश्रीः ॥ १०३॥ 

श्रीशांघ्रिभक्तिं हरिदासदास्यं प्रपन्नमन्त्रार्थदृढैकनिष्ठाम् ।
गुरोः स्मृतिं निर्मलबोधबुद्धिं प्रदेहि मातः परमं पदं श्रीः ॥ १०४॥ 

पृथ्वीपतित्वं पुरुषोत्तमत्वं विभूतिवासं विविधार्थसिद्धिम् ।
सम्पूर्णकीर्तिं बहुवर्षभोगं प्रदेहि मे देवि पुनःपुनस्त्वम् ॥ १०५॥ 

वादार्थसिद्धिं बहुलोकवश्यं वयःस्थिरत्वं ललनासु भोगम् ।
पौत्रादिलब्धिं सकलार्थसिद्धिं प्रदेहि मे भार्गवि जन्मजन्मनि ॥ १०६॥ 

सुवर्णवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः विभूतिवृद्धिं कुरू मे गृहे श्रीः ।
कल्याणवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः विभूतिवृद्धिं कुरु मे गृहे श्रीः ॥ १०७॥ 

॥ शिरो बीजम् ॥ ॐ-यं-हं-कं-लं- वं-श्रीम् ॥ 

ध्यायेल्लक्ष्मीं प्रहसितमुखीं कोटिबालार्कभासां
विद्युद्वर्णाम्बरवरधरां भूषणाढ्यां सुशोभाम् ।
बीजापूरं सरसिजयुगं बिभ्रतीं स्वर्णपात्रं
भर्त्रायुक्तां मुहुरभयदां मह्यमप्यच्युतश्रीः ॥ १०८॥ 

॥ इति श्रीअथर्वणरहस्ये लक्ष्मीहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाला है श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् का पाठ। जानियें कैसे करें इस स्तोत्र का पाठ? और साथ ही पढ़ियें इसका महत्व…

भार्गव ऋषि द्वारा रचित श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् बहुत ही चमत्कारिक स्तोत्र है। इसका पाठ करने का एक विशेष नियम है। इस स्तोत्र का विधि अनुसार पाठ करने से निर्धन मनुष्य भी धनवान हो जाता है। समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला यह स्तोत्र बहुत ही दुर्लभ है। पढ़ियें लक्ष्मी हृदय स्तोत्रम् और साथ में जानिये पाठ करने की विधि और इसके लाभ l

श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् का पाठ कब और कैसे करें?

श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् एक अद्वितीय स्तोत्र है। यह स्तोत्रम् श्री नारायण हृदयम् स्तोत्रम् से जुड़ा हुआ है। यह स्तोत्र अथर्व रहस्यम् में मिलते है। इनकी रचना ऋषि भार्गव के द्वारा की गई है। श्री नारायण हृदयम स्तोत्रम् के अंतिम भाग में इस बात का उल्लेख आता है कि पहले नारायण हृदयम् स्तोत्रम् का पाठ किया जाता है फिर उसके पश्चात् श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् का पाठ किया जाता है। यह दोनो स्तोत्रम् एक साथ पढ़े जाते है। इन्हे पृथक मानकर अलग से नहीं पढ़ा जाना चाहिए। इन दोनो का एक साथ पाठ किया जाना इस तथ्य को बल देता है कि भगवान नारायण और देवी लक्ष्मी वास्तव में एक ही हैं। हालाँकि दो अलग-अलग देवताओं के रूप में इनकी बात की जाती है। 

• दोनों स्तोत्रों का पाठ प्रात:काल या रात्रि के समय कभी भी किया जा सकता है। स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

• उसके बाद पूजा स्थान पर बैठकर लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा या चित्र के समक्ष धूप-दीप प्रज्वलित करें।

• हल्दी-रोली-चावल से तिलक करें। पुष्प और सुगन्ध अर्पित करें। फल और भोग निवेदन करें।

• फिर नारायण हृदयम् स्तोत्रम् का पाठ करें। फिर उसके बाद श्री लक्ष्मी हृदयम् स्तोत्रम का पाठ करें। श्री लक्ष्मी हृदयम् स्तोत्रम के बाद फिर से नारायण हृदयम् स्तोत्रम् का पाठ करें।

• विधि अनुसार पाठ करने के बाद अपनी गलतियों के लिये क्षमा याचना करें। और देवी लक्ष्मी से अपना मनोरथ कहें।

• इस स्तोत्र के पाठ को गुप्त रखें। इसकी चर्चा किसी से ना करें। यह एक गुप्त स्तोत्र है।

नोट: आश्विन मास में, शुक्लपक्ष में, पूर्णिमा पर, धन तेरस और दीपावली पर इन दोनों स्तोत्रम् का विधि अनुसार पाठ करने से इसका फल कई गुणा प्राप्त होता है। उस पर स्वर्ण (धन) और सुखों की वर्षा होती है।

श्री लक्ष्मी हृदयम स्तोत्रम् के लाभ

विधि अनुसार इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक को देवी लक्ष्मी और भगवान नारायण दोनों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। देवी लक्ष्मी अपने पुत्र के समान उसका ख्याल रखती है। यह बहुत ही दुर्लभ और गुप्त स्तोत्र है। इसका प्रभाव बहुत ही चमत्कारिक है। इस स्तोत्र का पाठ करने से

• धन – धान्य में वृद्धि होती है।

• समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है।

• दुख- दरिद्रता का नाश होता है।

• निर्धन से निर्धन मनुष्य भी धनवान हो जाता है।

• उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। वंश की वृद्धि होती है।

• राजाओं के समान उसका वैभव होता है।

• वाणी की सत्यता प्राप्त होती है।

• यश और बल में वृद्धि होती है।

• कार्य क्षेत्र में निरंतर प्रगति होती है।

• हर प्रकार के भय से जातक मुक्त हो जाता है।

• सभी आदि-व्याधियों से रक्षा होती है।

• सौभाग्य में वृद्धि होती है।

• जीवन में सुख शांति आती है।

• साधक इस संसार के सभी सुखों को भोगकर मरणोपरांत मोक्ष को प्राप्त होता है।

BHAGAWATI STOTRAM


|| श्री भगवती स्तोत्रम || 

जय भगवति देवि नमो वरदे 
जय पापविनाशिनि बहुफलदे |
जय शुम्भ निशुम्भ कपालधरे 
प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे ||१||

जय चन्द्रदिवाकर नेत्रधरे 
जय पावक भूषितवक्त्रवरे |
जय भैरवदेहनिलीनपरे 
जय अन्धकदैत्य विशोषकरे ||२||

जय महिषविमर्दिनिशूलकरे 
जय लोकसमस्तकपापहरे |
जय देवि पितामहविष्णुनते 
जय भास्करशक्रशिरोsवनते ||३||

जय षण्मुख सायुधईशनुते 
जय सागर गामिनि शम्भुनुते |
जय दु:खदरिद्रविनाशकरे 
जय पुत्रकलत्रविवृद्धकरे ||४||

जय देवि समस्तशरीरधरे 
जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे |
जय व्याधिविनाशिनि मोक्षकरे 
जय वांछितदायिनि सिद्धिवरे ||५||

एतव्द्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि: |
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा ||

Bhagwat Mangalacharan


भागवत मंगलाचरण हिन्दी अनुवाद सहित


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् 
तेने ब्रह्म हृदा य आदि - कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः |
तेजो-वारि- मृदां यथा विनिमयो यत्र त्रि-सर्गोऽमृषा 
धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि ||||

हिन्दी शब्दार्थ —

ॐ – हे प्रभु, नमः – नमस्कार है; भगवते–श्रीभगवान् को; वासुदेवाय – वासुदेव (वसुदेवपुत्र) या आदि भगवान् श्रीकृष्ण को; जन्म-आदि-उत्पत्ति, पालन तथा संहार; अस्य -प्रकट ब्रह्माण्डों का; यतः - जिनसे; अन्वयात्-प्रत्यक्ष रूप से; इतरत:- अप्रत्यक्ष रूप से; च – तथा; अर्थेषु — उद्देश्यों में; अभिज्ञः- पूर्ण रूप से अवगत; स्वराट् - पूर्ण रूप से स्वतन्त्र; तेने-प्रदान किया; ब्रह्म-वैदिक ज्ञान; हृदा- हृदय की चेतना; यः – जो; आदिकवये- प्रथम सृजित जीव के लिए; मुह्यन्ति – मोहित होते हैं; यत् — जिनके विषय में; सूरयः- बड़े-बड़े मुनि तथा देवता; तेजः - अग्नि; वारि-जल; मृदाम् – पृथ्वी; यथा- जिस प्रकार, विनिमयः - क्रिया-प्रतिक्रिया; यत्र — जहाँ पर; त्रिसर्गः - सृष्टि के तीन गुणसृष्टिकारी शक्तियाँ; अमृषा-लगभग सत्यवत् धाम्ना -समस्त दिव्य सामग्री के साथ; स्वेन—अपने से; सदा-सदैव; निरस्त- अनुपस्थिति के कारण त्यक्त; कुहकम्-मोह को; सत्यम् — सत्य को; परम्-परम; धीमहि - मैं ध्यान करता हूँ।

हे प्रभु! हे वसुदेव के पुत्र श्री कृष्ण ! हे सर्वव्यापी भगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रीति से सारे जगत् से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे कोई अन्य कारण नहीं है। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि पुरुष ब्रह्मा जी को वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़े रहते हैं जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक लगते हैं। अतः मैं उन भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान करता हूँ जो भौतिक जगत् के मोह रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरंतर वास करने वाले हैं। मैं उनका इसलिए ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं।

धर्मः प्रोज्झित- कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां 
वेद्यं वास्तवम् अत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् |
श्रीमद् भागवते महा-मुनि-कृते किं वा परैरीश्वर:  
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ||||

हिन्दी शब्दार्थ —

धर्मः -- धार्मिकता, प्रोज्झित- पूर्ण रूप से अस्वीकृत; कैतवः — सकाम विचार से भरा हुआ; अत्र – यहाँ परम:- सर्वोच्च; निर्मत्सराणाम् — शत-प्रतिशत शुद्ध हृदय वालों के; सताम्—भक्तों को; वेद्यम्—जानने योग्य; वास्तवम्-वास्तविक; अत्र-यहाँ वस्तु–वस्तु; शिवदम्— कल्याण; तापत्रय - तीन प्रकार के कष्ट; उन्मूलनम्—समूल नष्ट करना; श्रीमत्—सुन्दर; भागवते – श्रीमद्भागवत् पुराण में; महा-मुनि- महामुनि (श्री व्यासजी) द्वारा; कृते-संकलित; किम् -क्या है; वा— आवश्यकता; परैः - अन्य; ईश्वरः- परमेश्वर; सद्यः - तुरन्त; हृदि - हृदय में; अवरुध्यते - दृढ़ हो गया; अत्र - यहाँ, कृतिभिः - पवित्र व्यक्तियों द्वारा; शुश्रूषुभिः — संस्कार द्वारा; तत्-क्षणात् — अविलम्ब ।

हिन्दी भावानुवाद —

यह भागवत पुराण, भौतिक दृष्टि से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्णतया बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता हैं, जो पूर्णतया शुद्ध हृदय वाले भक्तों के द्वारा बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक् होते हुए सब के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तापत्रय को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सुन्दर भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की कैसी आवश्यकता है? ज्योंही कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है तो ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।

निगम - कल्प- तरोर् गलितं फलं
शुक-मुखादमृत-द्रव -संयुतम् |
पिबत भागवतं रसम् आलयम् 
मुहुर् अहो रसिका भुवि भावुकाः ||||

हिन्दी शब्दार्थ — 

निगम—वैदिक साहित्य; कल्प-तरोः कल्पवृक्ष का; गलितम् — पूर्णत रूप से परिपक्व; फलम् —फल; शुक— श्रीमद्भागवतम् के मूल वक्ता श्री शुकदेव स्वामी के; मुखात्—होठों से; अमृत - अमृत; द्रव - तरल अतएव सरलता से निगलने योग्य; संयुतम् — सभी प्रकार से पूर्ण; पिबत -इसका आस्वादन करो; भागवतम् — श्रीभगवान् के साथ सनातन सम्बन्ध के विज्ञान से युक्त ग्रन्थ को; रसम् — रस (जो आस्वाद्य है वह); आलयम्—मुक्ति प्राप्त होने तक या मुक्त अवस्था में भी; मुहुः — सदैव; अहो- हे; रसिका :- रस का पूर्ण ज्ञान रखने वाले रसिकजन; भुवि — पृथ्वी पर भावुका:- पटु तथा विचारवान्

हिन्दी भावानुवाद —

हे भावुक जनो! वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो। यह श्री शुकदेव गोस्वामी के होंठों से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक सुस्वादु हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेत समस्त लोगों के लिए पहले से आस्वाद्य था।

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Krishnashtakam


|| श्री कृष्णाष्टकम् ||

भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं
स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम् |
सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं
अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम् ||१||

मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं
विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम् |
करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं
महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्णावारणम् ||२||

कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं
व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम् |
यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया
युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम् ||३||

सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं
दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम् |
समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं
समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम् ||४||

भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं
यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम् |
दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं
दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम् ||५||

गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं
सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनम् |
नवीनगोपनागरं नवीनकेलिलम्पटं
नमामि मेघसुन्दरं तडित्प्रभालसत्पटम् ||६||

समस्तगोपनन्दनं हृदम्बुजैकमोदनं
नमामि कुंजमध्यगं प्रसन्नभानुशोभनम् |
निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं
रसालवेणुगायकं नमामि कुंजनायकम् ||७||

विदग्धगोपिकामनोमनोज्ञतल्पशायिनं
नमामि कुंजकानने प्रव्रद्धवन्हिपायिनम् |
किशोरकान्तिरंजितं दृअगंजनं सुशोभितं
गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम् ||८||

यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा
मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम् |
प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान
भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान ||९||

इति श्रीमच्छंकराचार्यकृतं श्रीकृष्णाष्टकं सम्पूर्णम् ||
श्री कृष्णार्पणमस्तु ||

Thursday, 14 December 2023

Govind Damodar Stotram






|| गोविन्द दामोदर स्तोत्र ||


करार विन्दे न पदार विन्दम् 
मुखार विन्दे विनिवेश यन्तम् |
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानम् 
बालम् मुकुंदम् मनसा स्मरामि ||१|| 

वट वृक्ष के पत्तो पर विश्राम करते हुए, कमल के समान कोमल पैरो को, कमल के समान हस्त से पकड़कर, अपने कमलरूपी मुख में धारण किया है, मैं उस बाल स्वरुप भगवान श्री कृष्ण को मन में धारण करता हूं ॥१॥  
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव |
जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ||२|| 

हे नाथ, मेरी जिह्वा सदैव केवल आपके विभिन्न नामो (कृष्ण, गोविन्द, दामोदर, माधव) का अमृतमय रसपान करती रहे ॥२॥ 

विक्रेतु कामा किल गोप कन्या
मुरारि पदार्पित चित्त वृति |
दध्यादिकम् मोहवशाद वोचद्
गोविन्द दामोदर माधवेति ||३||   

गोपिकाये दूध, दही, माखन बेचने की इच्छा से घर से चली तो है, किन्तु उनका चित्त बालमुकुन्द (मुरारि) के चरणारविन्द में इस प्रकार समर्पित हो गया है कि, प्रेम वश अपनी सुध – बुध भूलकर "दही लो दही" के स्थान पर जोर जोर से गोविन्द, दामोदर, माधव आदि पुकारने लगी है ll३ll 

गृहे गृहे गोप वधु कदम्बा
सर्वे मिलित्व समवाप्य योगम् |
पुण्यानी नामानि पठन्ति नित्यम्
गोविन्द दामोदर माधवेति ||४|| 

घर – घर में गोपिकाएँ विभिन्न अवसरों पर एकत्र होकर, एक साथ मिलकर, सदैव इसी उत्तमोतम, पुण्यमय, श्री कृष्ण के नाम का स्मरण करती है, गोविन्द, दामोदर, माधव ॥४॥

सुखम् शयाना निलये निजेपि
नामानि विष्णो प्रवदन्ति मर्त्याः |
ते निश्चितम् तनमय ताम व्रजन्ति
गोविन्द दामोदर माधवेति ||५|| 

साधारण मनुष्य अपने घर पर आराम करते हुए भी, भगवान श्री कृष्ण के इन नामो, गोविन्द, दामोदर, माधव का स्मरण करता है, वह निश्चित रूप से ही, भगवान के स्वरुप को प्राप्त होता है ॥५॥ 

जिह्वे सदैवम् भज सुंदरानी
नामानि कृष्णस्य मनोहरानी |
समस्त भक्तार्ति विनाशनानि
गोविन्द दामोदर माधवेति ||६|| 

है जिह्वा, तू भगवान श्री कृष्ण के सुन्दर और मनोहर इन्हीं नामो, गोविन्द, दामोदर, माधव का स्मरण कर, जो भक्तों की समस्त बाधाओं का नाश करने वाले हैं ॥६॥ 

सुखावसाने इदमेव सारम्
दुःखावसाने इद्मेव गेयम् |
देहावसाने इदमेव जाप्यं
गोविन्द दामोदर माधवेति ||७|| 

सुख के अन्त में यही सार है, दुःख के अन्त में यही गाने योग्य है, और शरीर का अन्त होने के समय यही जपने योग्य है, हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ॥७॥ 

श्री कृष्ण राधावर गोकुलेश
गोपाल गोवर्धन नाथ विष्णो |
जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ||८|| 

हे जिह्वा तू इन्हीं अमृतमय नामों का रसपान कर, श्री कृष्ण, अतिप्रिय राधारानी, गोकुल के स्वामी गोपाल, गोवर्धननाथ, श्री विष्णु, गोविन्द, दामोदर, और माधव ॥८॥ 

जिह्वे रसज्ञे मधुर  प्रियात्वं
सत्यम हितम् त्वां परं वदामि |
आवर्णयेता मधुराक्षराणि
गोविन्द दामोदर माधवेति ||९|| 

हे जिह्वा, तुझे विभिन्न प्रकार के मिष्ठान प्रिय है, जो कि स्वाद में भिन्न – भिन्न है। मैं तुझे एक परम् सत्य कहता हूँ, जो की तेरे परम हित में है। केवल प्रभु के इन्हीं मधुर (मीठे), अमृतमय नामों का रसास्वादन कर, गोविन्द, दामोदर, माधव ॥९॥  

त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे
समागते दण्ड धरे कृतान्ते |
वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या 
गोविन्द दामोदर माधवेति ||१०|| 

हे जिह्वा, मेरी तुझसे यही प्रार्थना है, जब मेरा अंत समय आए, उस समय सम्पूर्ण समर्पण से इन्हीं मधुर नामों लेना, गोविन्द, दामोदर, माधव ॥१०॥ 

श्री नाथ विश्वेश्वर विश्व मूर्ते
श्री देवकी नन्दन दैत्य शत्रो |
जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ||११|| 

हे प्रभु, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी, विश्व के स्वरुप, देवकी नन्दन, दैत्यों के शत्रु, मेरी जिह्वा सदैव आपके अमृतमय नामों गोविन्द, दामोदर, माधव का रसपान करती है ॥११॥

Jay Ram Rama Ramanam Shamanam

जय राम रमारमनं समनं    यह स्तुति भगवान शिव द्वारा प्रभु राम के अयोध्या वापस आने के उपलक्ष्य में गाई गई है। जिसके अंतर्गत सभी ऋ...