जय राम रमारमनं समनं
यह स्तुति भगवान शिव द्वारा प्रभु राम के अयोध्या वापस आने के उपलक्ष्य में गाई गई है। जिसके अंतर्गत सभी ऋषिगण, गुरु, कुटुम्बी एवं अयोध्या वासी कैसे अधीर हो कर अपने प्रभु रूप राजा राम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तथा श्री राम के आगमन पर कैसे सभी आनन्दित हैं, श्रीराम अपने महल को चलते है, आकाश से फूलों की वृष्टि हो रही है। सब का वर्णन है इस स्तुति में...छन्द:
जय राम रमारमणं समनं |
भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||
अवधेस सुरेस रमेस विभो |
सरनागत मागत पाहि प्रभो ||१||
दस सीस बिनासन बीस भुजा |
कृत दूरी महा माहि भूरी रुजा |
रजनीचर बृंद पतंग रहे |
सर पावक तेज प्रचंड दहे ||२||
महि मंडल मंडन चारूतरं |
धृत सायक चाप निषंग बरं |
मद मोह महा ममता रजनी |
तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||३||
मनजात किरात निपात किए |
मृग लोग कुभोग सरेन हिए |
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे |
विषया बन पाँवर भूली परे ||४||
बाहु रोग बियोगन्हि लोग हए |
भवदंध्री निरादर के फल ए |
भव सिंधु अगाध परे नर ते |
पद पंकज प्रेम न जे करते ||५||
अति दीन मलीन दुखी नितहीँ |
जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं |
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें |
प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||६||
नहीं राग न लोभ न मान मदा |
तिन्ह कें सम वैभव वा विपदा |
एहि ते तव सेवक होत मुदा |
मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||७||
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ |
पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ |
सम मानी निरादर आदरही |
सब संत सुखी बिचरंति महि ||८||
मुनि मानस पंकज भृंग भजे |
रघुवीर महा रनधीर अजे |
तव नाम जपामि नमामि हरी |
भव रोग महागद मान अरी ||९||
गुन सील कृपा परमायतनं |
प्रनमामि निरंतर श्रीरमणं |
रघुनंदन निकंदय द्वन्दधनं |
महि पाल बिलोकय दीन जनं ||१०||
दोहा:
बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग ||
बरनी उमापति राम गुन हरषि गए कैलास |
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||
जय राम रमारमणं समनं |
भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||
अवधेस सुरेस रमेस विभो |
सरनागत मागत पाहि प्रभो ||१||
दस सीस बिनासन बीस भुजा |
कृत दूरी महा माहि भूरी रुजा |
रजनीचर बृंद पतंग रहे |
सर पावक तेज प्रचंड दहे ||२||
महि मंडल मंडन चारूतरं |
धृत सायक चाप निषंग बरं |
मद मोह महा ममता रजनी |
तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||३||
मनजात किरात निपात किए |
मृग लोग कुभोग सरेन हिए |
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे |
विषया बन पाँवर भूली परे ||४||
बाहु रोग बियोगन्हि लोग हए |
भवदंध्री निरादर के फल ए |
भव सिंधु अगाध परे नर ते |
पद पंकज प्रेम न जे करते ||५||
अति दीन मलीन दुखी नितहीँ |
जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं |
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें |
प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||६||
नहीं राग न लोभ न मान मदा |
तिन्ह कें सम वैभव वा विपदा |
एहि ते तव सेवक होत मुदा |
मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||७||
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ |
पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ |
सम मानी निरादर आदरही |
सब संत सुखी बिचरंति महि ||८||
मुनि मानस पंकज भृंग भजे |
रघुवीर महा रनधीर अजे |
तव नाम जपामि नमामि हरी |
भव रोग महागद मान अरी ||९||
गुन सील कृपा परमायतनं |
प्रनमामि निरंतर श्रीरमणं |
रघुनंदन निकंदय द्वन्दधनं |
महि पाल बिलोकय दीन जनं ||१०||
दोहा:
बार बार बर मांगऊ हारिशी देहु श्रीरंग |
पदसरोज अनपायनी भागती सदा सतसंग ||
बरनी उमापति राम गुन हरषि गए कैलास |
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||