माता ललिता को समर्पित, यह ललिता जयंती हर साल माघ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। इस वर्ष यह 5 फरवरी 2023 को है। इस दिन मां ललिता की पूरे विधि-विधान से पूजा की जाती है। शास्त्रों के अनुसार माता ललिता को दस महाविद्याओं में तीसरी महाविद्या माना जाता है। ललिता जयंती पूरे विधि-विधान से की जाए तो माता ललिता प्रसन्न होकर व्यक्ति को जीवन में सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं।
ललिता जयंती क्यों मनाई जाती है?
इस दिन देवी ललिता की पूजा करने से भक्तों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। माता ललिता की पूरी श्रद्धा से पूजा करने से व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इसलिए ललिता जयंती पर देवी ललिता की बड़ी श्रद्धा से पूजा की जाती है।
ललिता जयंती का महत्व:
देवी ललिता, जो पंच महाभूतों, या पांच तत्वों से जुड़ी हैं, ललिता जयंती पर सम्मानित की जाती हैं। लोगों का मानना है कि देवी ललिता पांच तत्वों का रूप या प्रतीक हैं: पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और अंतरिक्ष।
कहा जाता है कि माता ललिता की पूजा करने से सभी प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति होती है। मां ललिता को
राजराजेश्वरी, कामाक्षी, मीनाक्षी, षोडशी, त्रिपुर सुंदरी आदि नामों से भी जाना जाता है।
ललिता पंचमी पूजन सामग्री:
ललिता पंचमी की पूजा के लिए- कुमकुम, अक्षत, हल्दी, चंदन, अबीर, गुलाल, दीपक, घी, इत्र, पुष्प, दूध, जल, फल, मेवा, मौली, आसन, तांबे का लोटा, नारियल, इत्यादि चीजों को एकत्रित करके रख लें।
पूजन विधि:
मां ललिता की पूजा करना चाहते हैं तो इस दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नानादि कर लें और सफेद रंग के वस्त्र धारण करें।
इसके बाद एक चौकी लें और उस पर गंगाजल छिड़कें और स्वंय उतर दिशा की और बैठ जाएं फिर चौकी पर सफेद रंग का कपड़ा बिछाएं।
चौकी पर कपड़ा बिछाने के बाद मां ललिता की तस्वीर स्थापित करें। यदि आपको तस्वीर न मिले तो आप श्री यंत्र भी स्थापित कर सकते हैं।
इसके बाद मां ललिता का कुमकुम से तिलक करें और उन्हें अक्षत, फल, फूल, दूध से बना प्रसाद या खीर अर्पित करें।
यह सभी चीजें अर्पित करने के बाद मां ललिता की विधिवत पूजा करें और ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः॥ मंत्र का जाप करें। श्रीयंत्र पर कुमकुम चढ़ाएं और ललितासहस्रनाम/ललितात्रिशती/खड़गमाला स्तोत्र का जाप करें l
इसके बाद मां ललिता की कथा सुनें या पढ़ें।
कथा पढ़ने के बाद मां ललिता की धूप व दीप से आरती उतारें।
इसके बाद मां ललिता को सफेद रंग की मिठाई या खीर का भोग लगाएं और माता से पूजा में हुई किसी भी भूल के लिए क्षमा मांगें।
ललिता देवी का प्रादुर्भाव कथा:
पौराणिक कथा के अनुसार, सतयुग में किसी समय एक बार मुनियों के एक समूह ने यज्ञ आयोजित किया l यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था l जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए l भगवान शिव दक्ष के दामाद थे l
यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए l अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने भी एक यज्ञ का आयोजन किया l
राजा प्रजापति दक्ष (जो भगवान ब्रह्मा के पुत्र थे) ने कंकण (बर्तमान कनखल) नामक स्थान (हरिद्वार) में एक यज्ञ किया था, इस यज्ञ का नाम वृहस्पति यज्ञ था। उन्होंने भगवान शिव से बदला लेने की इच्छा से यह यज्ञ किया था। दक्ष क्रोधित थे क्योंकि उनकी बेटी सती (उनकी 27 बेटियों में से एक) ने उनकी इच्छा के विरुद्ध 'योगी भगवान शिव' से विवाह किया था।
उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शिव को इस यज्ञ का निमंत्रण नहीं भेजा l
देवर्षि नारद जी ने देवी सती को बताया कि आपकी सब बहनें यज्ञ में आमंत्रित हैं, अतः आपको भी वहां जाना चाहिये। पहले तो देवी सती ने मन में कुछ देर विचार किया, फिर वहां जाने का निश्चय किया। जब देवी सती ने भगवान शिव से उस यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी तो भगवान शिव ने वहां जाना अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका, पर देवी सती अपने निश्चय पर अटल रहीं।
वह बोलीं मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊँगी और वहां पहुंच कर या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेव के लिये यज्ञ में भाग प्राप्त करूँगी या यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी "प्राप्सयामि यज्ञभागं वा नाशयिष्यामि वा मुखम्" l
ऐसा कहते हुए देवी सती के नेत्र लाल हो गये। उनके अधर फड़कने लगे जो कृष्ण वर्ण के हो गए । क्रोध अग्नि से उददीप्त शरीर महा भयानक एवं उग्र दीखने लगा। उस समय महामाया का विग्रह प्रचण्ड तेज से तमतमा रहा था।
शरीर वृद्धावस्था को प्राप्त-सा हो गया। उनकी केश राशि बिखरी हुई थी, चार भुजाओं से सुशोभित वह महादेवी पराक्रम की वर्षा करती सी प्रतीत हो रही थीं।
काल अग्नि के समान महा भयानक रूप में देवी मुण्ड माला पहने हुई थीं और उनकी भयानक जिहृा बाहर निकली हुई थी, सिर पर अर्धचन्द्र सुशोभित था और उनका सम्पूर्ण विग्रह विकराल लग रहा था। वह बार – बार भीषण हुंकार कर रही थीं।
इस प्रकार अपने तेज से देदीप्यमान एवं अति भयानक रूप धारण कर महादेवी सती घोर गर्जना के साथ अटटहास करती हुई भगवान शिव के समक्ष खड़ी हो गयीं। देवी का यह भीषणतम स्वरूप साक्षात महादेव के लिये भी असहनीय हो गया।
भगवान शिव का धैर्य जाता रहा। उनका वह रूप असहनीय होने से शंकर जी वहां से हट गए और सभी दिशाओं में इधर – उधर गति करने लगे। देवी ने उन्हें ‘रुक जाइये’, ‘मत जाइये’ कई बार कहा, किंतु शिव एक क्षण भी वहां नहीं रूके।
इस प्रकार अपने स्वामी को विचलित देख कर दयावती भगवती सती ने उन्हें रोकने की इच्छा से क्षण भर में अपने ही शरीर से अपनी अंगभूता दस देवियों को प्रकट कर दिया, जो दसों दिशाओं में उनके समक्ष स्थित हो गयीं। भगवान शिव जिस – जिस दिशा में जाते थे, भगवती का एक एक विग्रह उनका मार्ग अवरूद्ध कर देता था।
देवी की ये स्वरूपा शक्तियाँ ही दस महाविद्याएँ हैं, इनके नाम हैं – काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला।
जब भगवान शिव ने इन महाविद्याओं का परिचय पूछा तो देवी बोलीं – कृष्ण वर्णा तथा भयानक नेत्रों वाली ये जो देवी आपके सामने स्थित हैं, वह भगवती ‘काली’ हैं और जो यह श्याम वर्ण वाली देवी आपके ऊर्ध्व भाग में विराजमान हैं, वह साक्षात महाकाल स्वरूपिणी महाविद्या ‘तारा’ हैं।
महामते! आपके दाहिनी ओर वह जो भयदायिनी तथा मस्तक विहीन देवी विराजमान हैं, वह महाविद्या स्वरूपिणी भगवती ‘छिन्नमस्ता’ हैं। शम्भो! आपके बायीं ओर यह जो देवी हैं, वह भगवती ‘भुवनेश्वरी’ हैं।
जो देवी आपके पीछे स्थित हैं, वह शत्रुनाशिनी भगवती ‘बगला’ हैं। विधवा का रूप धारण की हुई यह जो देवी आपके अग्नि कोण में विराजमान हैं, वह महाविद्या स्वरूपिणी महेश्वरी ‘धूमावती’ हैं और आपके नैर्ऋत्यकोण में ये जो देवी हैं, वह भगवती (ललिता) 'त्रिपुरसुंदरी’ हैं।
आपके वायव्यकोण में जो देवी हैं, वह मातङ्ग कन्या महाविद्या ‘मातङ्गी’ हैं और आपके ईशान कोण में जो देवी स्थित हैं, वह महाविधा स्वरूपिणी महेश्वरी ‘षोडशी’ हैं।
और मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देने के लिए आपके सामने खड़ी हूं।' यही दस महाविद्या अर्थात् दस शक्ति है।
बाद में मां ने अपनी इन्हीं शक्तियां का उपयोग दैत्यों और राक्षसों का वध करने के लिए किया था।
प्रवृति के अनुसार दस महाविद्या के तीन समूह हैं।
पहला : - सौम्य कोटि (त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, कमला),
दूसरा : - उग्र कोटि (काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी),
तीसरा : - सौम्य-उग्र कोटि (तारा और त्रिपुर भैरवी)।
यह सभी रूप भगवती के अन्य समस्त रूपों से उत्कृष्ट हुईं हैं। ये देवियाँ नित्य भक्तिपूर्वक उपासना करने वाले साधक पुरूषों को चारों प्रकार के पुरूषार्थ ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) तथा समस्त वांछित फल प्रदान करती हैं।
शिव ने अंततः उन्हें अपने गणों के साथ वृहस्पति यज्ञ में
जाने की अनुमति दी।
लेकिन बिन बुलाए मेहमान होने के कारण सती को उनके पिता ने कोई सम्मान नहीं दिया। और भी, दक्ष ने शिव का अपमान किया। सती अपने पति के प्रति अपने पिता के अपमान को सहन करने में असमर्थ थीं, इसलिए उन्होंने यज्ञ-कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी l
भगवान शंकर को जब यह पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया l ब्रम्हाण्ड में प्रलय व हाहाकार मच गया l वह अपने गणों (अनुयायियों) के साथ उस स्थान पर गए जहाँ दक्ष अपना हवन कर रहे थे।
शिव जी के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सजा दी l भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिये और दुःखी होकर सारे भूमंडल में घूमने लगे l
भगवती सती ने शिवजी को दर्शन दिए और कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के अंग अलग होकर गिरेंगे, वहां महाशक्तिपीठ का उदय होगा सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर घूमते हुए तांडव भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी l पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंड-खंड कर धरती पर गिराते गए l जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से माता के शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते l
शरीर के विभिन्न भाग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में कई स्थानों पर गिरे और उन स्थानों का निर्माण किया जिन्हें शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है।
आप अपने और अपने प्रियजनों के लिए श्री यंत्र पूजा और ललिततासहस्रनाम जाप के लिए
"देवी शक्ति पीठ" में अनुरोध कर कर सकते हैं l
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