ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदि - कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः |
तेजो-वारि- मृदां यथा विनिमयो यत्र त्रि-सर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि ||१||
हिन्दी शब्दार्थ —
ॐ – हे प्रभु, नमः – नमस्कार है; भगवते–श्रीभगवान् को; वासुदेवाय – वासुदेव (वसुदेवपुत्र) या आदि भगवान् श्रीकृष्ण को; जन्म-आदि-उत्पत्ति, पालन तथा संहार; अस्य -प्रकट ब्रह्माण्डों का; यतः - जिनसे; अन्वयात्-प्रत्यक्ष रूप से; इतरत:- अप्रत्यक्ष रूप से; च – तथा; अर्थेषु — उद्देश्यों में; अभिज्ञः- पूर्ण रूप से अवगत; स्वराट् - पूर्ण रूप से स्वतन्त्र; तेने-प्रदान किया; ब्रह्म-वैदिक ज्ञान; हृदा- हृदय की चेतना; यः – जो; आदिकवये- प्रथम सृजित जीव के लिए; मुह्यन्ति – मोहित होते हैं; यत् — जिनके विषय में; सूरयः- बड़े-बड़े मुनि तथा देवता; तेजः - अग्नि; वारि-जल; मृदाम् – पृथ्वी; यथा- जिस प्रकार, विनिमयः - क्रिया-प्रतिक्रिया; यत्र — जहाँ पर; त्रिसर्गः - सृष्टि के तीन गुण, सृष्टिकारी शक्तियाँ; अमृषा-लगभग सत्यवत् धाम्ना -समस्त दिव्य सामग्री के साथ; स्वेन—अपने से; सदा-सदैव; निरस्त- अनुपस्थिति के कारण त्यक्त; कुहकम्-मोह को; सत्यम् — सत्य को; परम्-परम; धीमहि - मैं ध्यान करता हूँ।
हे प्रभु! हे वसुदेव के पुत्र श्री कृष्ण ! हे सर्वव्यापी भगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के कारणों के आदि कारण हैं। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रीति से सारे जगत् से अवगत रहते हैं और वे परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि उनसे परे कोई अन्य कारण नहीं है। उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि पुरुष ब्रह्मा जी को वैदिक ज्ञान प्रदान किया। उन्हीं के कारण बड़े-बड़े मुनि तथा देवता उसी तरह मोह में पड़े रहते हैं जिस प्रकार अग्नि में जल या जल में स्थल देखकर कोई माया के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है। उन्हीं के कारण ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया के कारण अस्थायी रूप से प्रकट होते हैं, अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक लगते हैं। अतः मैं उन भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान करता हूँ जो भौतिक जगत् के मोह रूपों से सर्वथा मुक्त अपने दिव्य धाम में निरंतर वास करने वाले हैं। मैं उनका इसलिए ध्यान करता हूँ, क्योंकि वे परम सत्य हैं।
धर्मः प्रोज्झित- कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवम् अत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् |
श्रीमद् भागवते महा-मुनि-कृते किं वा परैरीश्वर:
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ||२||
हिन्दी शब्दार्थ —
धर्मः -- धार्मिकता, प्रोज्झित- पूर्ण रूप से अस्वीकृत; कैतवः — सकाम विचार से भरा हुआ; अत्र – यहाँ परम:- सर्वोच्च; निर्मत्सराणाम् — शत-प्रतिशत शुद्ध हृदय वालों के; सताम्—भक्तों को; वेद्यम्—जानने योग्य; वास्तवम्-वास्तविक; अत्र-यहाँ वस्तु–वस्तु; शिवदम्— कल्याण; तापत्रय - तीन प्रकार के कष्ट; उन्मूलनम्—समूल नष्ट करना; श्रीमत्—सुन्दर; भागवते – श्रीमद्भागवत् पुराण में; महा-मुनि- महामुनि (श्री व्यासजी) द्वारा; कृते-संकलित; किम् -क्या है; वा— आवश्यकता; परैः - अन्य; ईश्वरः- परमेश्वर; सद्यः - तुरन्त; हृदि - हृदय में; अवरुध्यते - दृढ़ हो गया; अत्र - यहाँ, कृतिभिः - पवित्र व्यक्तियों द्वारा; शुश्रूषुभिः — संस्कार द्वारा; तत्-क्षणात् — अविलम्ब ।
हिन्दी भावानुवाद —
यह भागवत पुराण, भौतिक दृष्टि से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्णतया बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता हैं, जो पूर्णतया शुद्ध हृदय वाले भक्तों के द्वारा बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक् होते हुए सब के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तापत्रय को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सुन्दर भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की कैसी आवश्यकता है? ज्योंही कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है तो ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।
निगम - कल्प- तरोर् गलितं फलं
शुक-मुखादमृत-द्रव -संयुतम् |
पिबत भागवतं रसम् आलयम्
मुहुर् अहो रसिका भुवि भावुकाः ||३||
हिन्दी शब्दार्थ —
निगम—वैदिक साहित्य; कल्प-तरोः कल्पवृक्ष का; गलितम् — पूर्णत रूप से परिपक्व; फलम् —फल; शुक— श्रीमद्भागवतम् के मूल वक्ता श्री शुकदेव स्वामी के; मुखात्—होठों से; अमृत - अमृत; द्रव - तरल अतएव सरलता से निगलने योग्य; संयुतम् — सभी प्रकार से पूर्ण; पिबत -इसका आस्वादन करो; भागवतम् — श्रीभगवान् के साथ सनातन सम्बन्ध के विज्ञान से युक्त ग्रन्थ को; रसम् — रस (जो आस्वाद्य है वह); आलयम्—मुक्ति प्राप्त होने तक या मुक्त अवस्था में भी; मुहुः — सदैव; अहो- हे; रसिका :- रस का पूर्ण ज्ञान रखने वाले रसिकजन; भुवि — पृथ्वी पर भावुका:- पटु तथा विचारवान्।
हिन्दी भावानुवाद —
हे भावुक जनो! वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस पक्व फल श्रीमद्भागवत को जरा चखो तो। यह श्री शुकदेव गोस्वामी के होंठों से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी अधिक सुस्वादु हो गया है, यद्यपि इसका अमृत-रस मुक्त जीवों समेत समस्त लोगों के लिए पहले से आस्वाद्य था।
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